मुंबई में कबूतरों को दाना डालने पर बैन, हेल्थ कंसर्न्स के चलतेपीटा प्रोटेस्ट, पर्यावरण और स्वास्थ्य पर बहस छिड़ी।
मुंबई, 15 नवंबर 2025: मुंबई की हलचल भरी सड़कों पर कबूतरों का झुंड देखना अब इतिहास का हिस्सा बन सकता है। बॉम्बे हाईकोर्ट के जुलाई 2025 के आदेश के बाद मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) ने शहर के प्रमुख कबूतरखानों (पिजन फीडिंग जोन्स) पर सख्ती बरतनी शुरू कर दी है। स्वास्थ्य जोखिमों और पर्यावरणीय क्षति के नाम पर कबूतरों को सार्वजनिक स्थानों पर दाना डालने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है। इस फैसले ने न सिर्फ शहरवासियों को दो भागों में बांट दिया है, बल्कि पीपल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स (पीटा) इंडिया के अनोखे प्रोटेस्ट ने बहस को और तेज कर दिया। जैन समुदाय और अन्य धार्मिक समूहों के विरोध के बीच स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि कबूतरों के मल से फैलने वाली बीमारियां एक गंभीर खतरा हैं।बैन का बैकग्राउंड: स्वास्थ्य और पर्यावरणीय चिंताएंबॉम्बे हाईकोर्ट ने 31 जुलाई 2025 को एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए बीएमसी को निर्देश दिया कि कबूतरों को सार्वजनिक और धरोहर स्थलों पर दाना डालने पर आपराधिक कार्रवाई की जाए। अदालत ने कहा कि कबूतरों के मल से क्रिप्टोकोकोसिस, हिस्टोप्लाज्मोसिस और सिटाकोसिस जैसी श्वसन संबंधी बीमारियां फैल सकती हैं, जो फेफड़ों को नुकसान पहुंचाती हैं। RTI के आंकड़ों के अनुसार, 2024 में मुंबई के तीन बड़े अस्पतालों में श्वसन रोगों के केवल 0.3% मामलों का संबंध कबूतरों से था, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि यह आंकड़ा कम आंका गया है।कबूतरों के मल में यूरिक एसिड होता है, जो इमारतों, मूर्तियों और धातु संरचनाओं को नुकसान पहुंचाता है। इसके अलावा, कबूतरों के घोंसले वेंटिलेशन सिस्टम में फंसकर मोल्ड का कारण बनते हैं, जो आवासीय और व्यावसायिक भवनों में अस्वास्थ्यकर स्थिति पैदा करते हैं। पीटा की एक स्टडी के अनुसार, ज्यादा दाना डालने से कबूतरों की आबादी बढ़ती है, जो शहर की पारिस्थितिकी को असंतुलित करती है। मुंबई में अनुमानित 50,000 से अधिक कबूतर हैं, जो प्राकृतिक भोजन के बजाय मानव-प्रदत्त दाने पर निर्भर हैं। बैन लागू होने के बाद कोलाबा, फोर्ट और गेटवे ऑफ इंडिया जैसे प्रमुख कबूतरखानों को टार्पॉलिन शीट्स से ढक दिया गया है।विरोध की लहर: जैन समुदाय और अन्य का आक्रोशबैन के खिलाफ विरोध की शुरुआत अगस्त 2025 में हुई, जब जैन समुदाय ने इसे धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला बताया। जैन धर्म में कबूतरों को दाना डालना पुण्य का कार्य माना जाता है, और गुजराती समुदाय भी इसे शुभ मानता है। 4 अगस्त को कोलाबा जैन मंदिर से गेटवे ऑफ इंडिया तक हजारों प्रदर्शनकारी मार्च निकाला गया। जैन संत नरेशचंद्र जी महाराज ने अनशन-जान की धमकी दी, दावा किया कि बैन के बाद सैकड़ों कबूतर भूख से मर चुके हैं। एक अन्य प्रोटेस्ट में 15 लोगों को हिरासत में लिया गया, जब उन्होंने टार्पॉलिन शीट्स हटाने की कोशिश की।महाराष्ट्र मंत्री और बीजेपी विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा ने बीएमसी कमिश्नर को पत्र लिखकर कबूतरखानों के ध्वंस पर चिंता जताई और अदालत-निगरानी वाले पैनल बनाने की मांग की। विपक्षी दलों ने भी इसे ‘सांस्कृतिक हमला’ करार दिया। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि सालों से दाना डालने से उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा, और बैन भूखे कबूतरों का क्रूर अंत है।पीटा का अनोखा प्रोटेस्ट: कबूतर मास्क और विवादपीटा इंडिया ने सितंबर 2025 में फ्लोरा फाउंटेन पर एक क्रिएटिव प्रोटेस्ट किया, जहां स्वयंसेवकों ने ज्यामितीय कबूतर मास्क पहनकर शहरवासियों की तरह घूम-फिरकर प्लेकार्ड दिखाए। वीडियो में वे लोकल ट्रेन में सवार होकर वड़ा पाव खरीदते नजर आए, संदेश देते हुए: “मुंबई के आसमान कबूतरों के बिना अधूरे हैं। बैन से ये नन्हे पक्षी भूखे मर रहे हैं।” पीटा ने महाराष्ट्र सीएम देवेंद्र फडणवीस को पत्र लिखकर बैन हटाने की अपील की, दावा किया कि स्वास्थ्य जोखिम ‘अतिरंजित’ हैं।उन्होंने वैकल्पिक सुझाव दिए: सुबह-शाम निश्चित समय पर दाना डालने की अनुमति, कबूतरखानों पर नियमित सफाई, और बहुभाषी बोर्ड लगाकर जागरूकता। पीटा कैंपेन कोऑर्डिनेटर उत्कर्ष गर्ग ने कहा, “कबूतर मुंबईकर हैं, बस जीवित रहने की कोशिश कर रहे हैं। पीढ़ियों बाद अचानक दाना बंद करना क्रूरता है।” हालांकि, यह प्रोटेस्ट सोशल मीडिया पर उल्टा पड़ा। यूजर्स ने पीटा को ‘पक्षपाती’ कहा, कबूतरों को ‘उड़ते चूहों’ की संज्ञा दी, और बीमारियों के खतरे की याद दिलाई। एक यूजर ने लिखा, “अगर विज्ञान कहता है कि कबूतर हानिकारक हैं, तो बैन सही है।” पीटा ने जवाब दिया कि कबूतर बर्ड फ्लू के प्राकृतिक प्रतिरोधी हैं, और जोखिम न्यूनतम है।बहस का केंद्र: स्वास्थ्य vs. परंपरा और करुणायह विवाद स्वास्थ्य, पर्यावरण, धार्मिक भावनाओं और पशु कल्याण के बीच टकराव को उजागर करता है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि कबूतरों के मल से फैलने वाली बीमारियों का इलाज शुरुआती चरण में संभव है, लेकिन लंबे समय तक संपर्क फेफड़ों को स्थायी नुकसान पहुंचा सकता है। दूसरी ओर, पीटा और प्रदर्शनकारी तर्क देते हैं कि मुंबई की संस्कृति में कबूतर फिल्मों और दैनिक जीवन का हिस्सा हैं—बालकनी और एसी पर बैठे ये पक्षी शहर की पहचान हैं।बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक विशेषज्ञ पैनल गठित किया है, जो नियंत्रित दाना डालने के विकल्प सुझाएगा। बीएमसी का कहना है कि पैनल की सलाह पर स्टैगर्ड फीडिंग की अनुमति दी जा सकती है। राजनीतिक रूप से, यह मुद्दा चुनावी समीकरण प्रभावित कर सकता है, क्योंकि जैन और गुजराती वोट बैंक महत्वपूर्ण हैं।आगे की राह: संतुलन की तलाशमुंबई का यह ‘कबूतर युद्ध’ शहर की बहुलतावादी छवि को परख रहा है। क्या स्वास्थ्य को प्राथमिकता मिलेगी या परंपराओं को? विशेषज्ञों का मानना है कि नियंत्रित फीडिंग—जैसे निश्चित समय और सफाई—एक व्यावहारिक समाधान हो सकता है। फिलहाल, कबूतरखाने ढके हुए हैं, लेकिन विरोध की आवाजें बुलंद हैं। पूर्ण अपडेट के लिए बीएमसी या अदालत की आधिकारिक वेबसाइट देखें।

